ज्यों ज्यों हम सुख सुविधाओं के नजदीक हों रहे हैं त्यों-त्यों प्राकृतिक वातावरण से दूर होते जा रहे हैं, कृत्रिम वातावरण में रहना हमारी मजबूरी बनती जा रही है , कुलर , एयरकंडीशन हमारी मजबूरी बनती जा रही है।हाथ पंखा से एयरकंडीशन तक के सफर में अगर हमनें कुछ खोया है तो वह है हमारा प्राकृतिक वातावरण जो हमें गर्मी और सर्दी से लड़ने की शक्ति देता साधन देता था, वो सारी सुविधाएं देता था जो विपरीत मौसम के प्रभाव से लड़ने में हमें मदद मिलती थी ,परंतु हाल के कुछ दशकों ने सबकुछ पलट कर रख दिया है पहले जैसा कुछ भी नहीं है।
मेरे शहर पूर्णियां को मिनी दार्जिलिंग के नाम से जाना जाता है, पूर्णियां में ज्यादा गर्मी होती ही नहीं थी , पूर्णियां का तापमान जैसे ही 38 से 40 डिग्री के पास पहुंचता था, वैसे ही यहां मेघ लगाकर बारिश हो जाती थी।
पूर्णियां की बारिश किसी मानसून का मोहताज नहीं थी,आए दिन झमाझम बारिश हुआ करती थी। जब पूरा उत्तर भारत गर्मी से परेशान होता था उस वक्त पूर्णियां का मौसम सुहाना होता था।
ऐसा इसलिए था कि, पूर्णियां में की मिट्टी बलूवाही है और भूमिगत जल नजदीक में है इस कारण यहां वातावरण में नमी की अधिकता रहती हैं और इसी नमी की अधिकता के कारण यहां पेड़ पौधे तुरंत निकल आते हैं
जंगल जैसा माहौल होने के कारण आए दिन बारिश होती रहती थी । यदी एक सप्ताह गर्मी लगातार होती थी तो नौवें दशवें दिन बारिश होनी थी परंतु अब पूर्णियां ने अपना प्रकृति आचरण खो दिया है! अब पूर्णियां में बारिश मानसून का मोहताज हो गई है जिससे पूर्णियां के लोग दुखी हैं ।
इन सब का कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई है।
पूर्णियां शहर के विस्तार ने यहां की प्रकृति आचरण को छीन लिया है?
पूर्णियां में दस से बारह मोहल्ले ऐसे बने हैं जिनमें घने पेड़ हुआ करते थे , जंगल के जैसा वातावरण था अब सब जगह ईंटों के मकान है और इन मकानों के छत पर गमलों में गर्मी से दम तोड़ते पौधे हैं ?
पूर्णियां की जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई है जिसके परिणामस्वरूप लाखों की संख्या में पेड़ काटे गए होंगे। सड़को के चौड़ीकरण के कारण भी अनगिनत पेड़ो की बली चढ़ी हैं।
अत्यधिक पेड़ कटने के कारण पूर्णियां की धरती के पास अब वह ताकत ही नहीं रही जिसे जंगल कहते हैं और पेड़ो से सुनी धरती बारिश को आकर्षित करने में असमर्थ हैं,जमीन सुखी है गर्मी से लोग बेहाल है और मोबाईल फोन में मौसम का अपडेट देखते रहते हैं।
और मौसम की भविष्यवाणी भी पूर्णियां में फेल होती जा रही है ।
मेरा शहर अब पहले जैसा नहीं रहा !
सुर्खी चुना ,फूस, मिट्टी, खपरैल से बने घर काफी ठंडे रहते हैं हमें इन साधनों का विकास करना चाहिए था जबकि, हमने मजबूती के लिए ईंट पत्थर के मकान बनाने लगे , दोनों गर्मी में गर्म और सर्दी में ठंडा हो जाते हैं जो स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
तार के पेड़ की पत्तियों एवं अन्य प्राकृतिक साधनों से बनी चटाई , ठंडे होते हैं इनका प्रयोग गर्मियों में किया जाता था जो गर्मी से बचाव के लिए प्राकृतिक साधन थे परंतु प्रकृतिक साधनों को छोड़ कृत्रिम साधनों का विकास करने लगे ! अब सवाल यह उठता है कि, हमनें विकास किया है या प्रकृति का सर्वनाश किया है ?
इसलिए यहां के लोगों को कभी भी ज़्यादा गर्मी का सामना नहीं करना पड़ता था।
जब मैं नवम् कक्षा में थी उस समय का वाकया मुझे याद है , काफ़ी गर्मी थी और गणित के शिक्षक को क्लास ले रहे थे सारे छात्र और छात्राएं गर्मी से परेशान हो रहे थे और सर पढ़ा रहे थे वे हमलोगों को बीच बीच में देख भी लेते थे पढ़ाते-पढ़ाते उन्होंने हमसे सवाल किया की, गर्मी लग रही है?
हम लोगों ने एकसाथ कहा हां सर,
उन्होंने फिर हमलोगों से सवाल कि, मुझे तुमलोगो की अपेक्षा कम गर्मी लग रही है तुमलोगों में से कोई बता सकते हो कैसे? हम में
2014 में मैं बायसी उच्च माध्यमिक में कार्यरत थी वहां स्कूल का भवन हर सरकारी स्कूलों की तरह बना हुआ था सीधी एक लाइन से कक्षाएं थी, बहूत सारा विकास हुवा लेकीन मेरा शहर अब पहले जैसा नही रहा !
*चंद्रकांत सी.पुजारी*
(गुजरात प्रदेश प्रभारी)
स्वाभिमानी संपादक सेवा संघ
महुवा,सुरत (गुजरात प्रदेश)
संकलन
समता न्यूज सर्व्हिसेस, श्रीरामपूर - 9561174111